Thursday, 30 January 2020

विलुप्त होती लोक संस्कृति - बसंत पंचमी - श्री पंचमी - बसंत का स्वागत - Basant Panchami

विलुप्त होती संस्कृति 

बसंत पंचमी 

उत्तराखंड में त्योहारों का इतिहास काफी पुराना है। लोक-संस्कृति में त्योहारों का काफी महत्व है। पहाड़ का जीवन पहाड़ों की ही तरह कठोर और संघर्षों से भरा रहता है।  पहाड़ की पथरीली ज़मींन और दुष्कर वातावरण यहाँ के लोगों की कठोर परीक्षा लेता है। 
फोटो साभार- डॉ अनिल कार्की की वाल से 
अनाज़ उगाने के लिए भी यहाँ के लोगों को कठिन परिश्रम करना पड़ता है, जिससे दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम किया जा सके। तराई की अपेक्षा पहाड़ में फसल उगना काफी दुष्कर काम होता है। 
आम तौर पर यहाँ के लोगों की आम दिनचर्या जल्दी सुबह से शरू होकर देर शाम तक चलती है। इस प्रकार के कठिन परिश्रम से ज़ीवन काफी उबाऊ  व निष्कर लगने लगता है। जीवन की इस उदासीनता से उबरने के लिए लोक-संस्कृति में त्योहारों का काफी महत्वपूर्ण स्थान है। वैसे तो उत्तराखंड में कई त्योहारों का प्रचलन है, जो हर्षोल्लाश  से मनाए जाते हैं पर इन सबमे भी बसंत पंचमी का अपना ही एक विशेष स्थान है। 

बसंत पंचमी ''माघ शुक्ल '' के दिन मनायी जाती है। यह त्यौहार "श्री पंचमी'' के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस दिन माँ सरस्वती की भी पूजा करी जाती है। इस दिन जौं के पत्तों को खेतों से लेकर देवी-देवताओं को अर्पित करते हैं तथा फिर अपने परिवार जनो के सिर व कानों में रखने का प्रचलन है। बहने व घर की स्त्रियाँ सभी पुरुषों का टीका करतीं हैं। इस त्यौहार में पीले रंग के वस्त्रों का विशेष महत्व होता है। आमतौर पर लोग बाजार से पीले रुमाल खरीद कर देवताओं को चढ़ाते हैं। गाँव-घरों में झोड़ा-चांचरी का भी आयोजन किया जाता है। बच्चे पीले रूमालों को हाथों में बांधकर दिन भर मस्ती करते हैं।

ऐतिहासिक व निति-शास्त्र की पष्ठ्भूमि पर नज़र डालें तो प्रतीत होता है कि किस तरह से लोक-संस्कृति का प्रकृति के साथ सीधा सम्बन्ध है। विभिन्न त्योहारों को हमरे पूर्वजों ने प्रकृति के साथ जोड़ा तथा इससे हमारे लोक में प्रकृति के प्रति सम्मान को जाहिर किया गया  है।

लोक-संस्कृति आदिम सभ्यता है और आदिम सभ्यताओं में जहाँ देवी-देवताओं का आगमन व उपासना शुरू नहीं हुई थी मनुष्य ने प्रकृति को ही उपासित माना व उसके आगे ही सिर झुकाया। प्रकृति व मनुष्य ने एक-दूसरे को अपना आश्रित माना।

बसंत-पंचमी का त्यौहार हरियाली का त्यौहार है। पहाड़, जहाँ जाड़ों भर ठंड व पतझड़ का मौसम रहता है। जीवन भी निष्क्रिय सा हो जाता है। पहाड़ों की हाड़ कंपाने वाली ठण्ड मनुष्य ही क्या जीव-जंतुओं, पेड़ पौधों को भी बेजान सा कर देती हैं। ऐसे में बसंत-पंचमी का त्यौहार जीवन में एक नयी जान फूंक देता है। खेतों में सरसों के पौंधो में पीले फूल खिलने लगते हैं। चारों तरफ नव-जीवन का आगमन होता है।

फोटो साभार- Uttaranchal Today 
बसंत-पंचमी के ही दिन से उत्तराखंड में बैठक होली का आयोजन भी शुरू हो जाता है। जो होली के त्यौहार के बाद तक चलता है। जगह-जगह झोड़ा-चांचरी का भी आयोजन किया जाता है। महीनों से उदास पड़े जीवन व चेहरों पर फिर से लालीमा आ जाती है।

हमारे त्यौहार हमें अपनी मिट्टी से जोड़ने का भी काम करतें हैं। परन्तु कुछ बीते दशकों में पश्च्यात सभ्यता और बाज़ारवाद के आगमन से लोक-संस्कृति का ह्रास शुरू होने लगा है। आज नवयुवक अपने पुरखों, अपने रिवाज़ों से दूर जाने लगे हैं। अपने पूर्वजों के कदमों के निशान मिठाने पर आमादा नवयुवक देशी-संस्कृतियों का पुरजोर समर्थन करते हैं। लोक-संस्कृति मनुष्य को उसके अस्तित्व से जोड़ती है। मिलजुल कर रहना व कष्टों को आपस में बाँटना सीखाती है। बाज़ारवाद के इस दौर में एकल परिवारों का भी महत्व बड़ा है। बड़ों का आदर सम्मान जो लोक-संस्कृति का प्रमुख आधार है समाप्ति की ओर है।

पर्यावण का ह्रास भी लोक-संस्कृति के ह्रास पर ही निर्भर करता है। हमारी विरासत हमेशा से प्रकृति का आदर करना तथा उसे संरक्षित करना सीखते रही है। हमारे लोक-देवता, मंदिर, जागर सभी में प्रकृति के संरक्षण की बात हमेशा से की जाती रही है।

आज हमें आवश्यकता है कि हम आगे आएं और अपनी संस्कृति अपनी लोक-परम्पराओं का आदर करें तथा अपनी आने वाली पीढ़ी को भी इसे संरक्षित करना सिखाए।




लेखक-तरुण पाठक






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