Tuesday, 28 January 2020

हिंदी कहानी - लाश : Deodar Online | Hindi kahani | सामाजिक कहानी | Kahani Hindi Mai

लाश 

अनादि विघ्नो देवो, शंक चक्र गदाधरो। 

अभ्युदयं पुण्डरीकाक्ष्यं , प्रेत मोक्ष पदों भवः.

     एक बार हम दिल्ली से रोडवेज बस में आ रहे थे। सामने से वैष्णो देवी के दर्शन से लौट रहे यात्रियों से भरा एक ट्रक चल रहा था। कोहरा लगा था और भजन-कीर्तन की आवाज़ हम तक बहुत मंद होकर पहुंच रही थी। तभी ट्रक के ड्राइवर ने ट्रक से अपना नियंत्रण खो दिया और ट्रक को सामने किनारे खड़े दूसरे ट्रक से भिड़ा दिया। भजन-कीर्तन की आवाज़ चीख़-पुकार मे बदल गयी। भिड़ंत इतनी जबरदस्त थी कि ड्राइवर का शरीर ट्रक के स्टेयरिंग में फंस गया। किसी का सिर उसके धड़ से, किसी का हाथ उसके कंधो से, किसी का पैर उसके कुहलों से अलग हो गया। जल्द-बाज़ी में पुलिस लो बुलाया गया, फिर एम्बुलेंस आयी और घायलों एवं मृतकों को लेकर चले गई।

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फोटो साभार-flickr 
     दृश्य बड़ा भनायक था, ऐसा कहते हुए वो जोर से हँसा और कहने लगा 'यार' हम तो हाईवे के बन्दे हुए क्या-क्या नहीं देखा हुआ हमने लाइफ में. "तभी किसी ने बीच मे कुछ कहा और सब जोर से हंस पड़े"।

     वहां कोई दावत नहीं चल रही थी, न ही कोई समारोह चल रहा था, वहां इंतज़ार हो रहा था, इंतज़ार "लाश" का! लाश 'हरका' की थी।  जो कल ही मरे थे। बड़े प्यारे आदमी थे हरका, सरकारी विभाग में सरकारी मुलाज़िम थे। कभी किसी से लड़ाई झगड़ा नहीं किया हुआ। शांत और हँस-मुख स्वभाव के हुए सबकी मदद करने वाले। बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का शौक हुआ हरका को, अभी पिछले हफ्ते ही बेटा 'टिंकू' १२वीं की परीक्षा में विद्यालय में अव्वल आया था। घर में ख़ुशी का माहौल था। 'हरका' ने टिंकू की इस सफलता के लिए उसके लिए दो 'पैंट' और एक 'कमीज़' सिलवाई थी। बस-एक-दो ही बुरी आदतें हुई हरका में, लोगों से झूठ बोलकर रुपये उधार ले लेते थे और कभी-कभार शराब भी पी लेते थे। सुनने में आ रहा था कि हाल में ही उन्होंने एक 'छात्र-नेता' से ये कहकर ८००० रूपये उधर ले लिए थे कि उनकी छोटी बहन को कैंसर की बीमारी हो गई है, उसे देखने जाना है। बाद में पता चला की कोई कैंसर की बीमारी नहीं हुई थी छोटी बहन के छोटे बेटे का उपनयन संस्कार था, लखनऊ मे।  इसलिए नेता अपने चमचों के साथ दो-चार दिन से विद्यालय में हरका का पता पूछ रहा था।

     लखनऊ में हरका को शराब की तलब लगी। दिन-धुप में रिक्से पर सवार हरका शराब की खोज में निकल पड़े। गर्मी ज्यादा थी लू लगने से हरका को चक्कर आ गया।  रिक्शे से नीचे सिर के बल गिरे और ऐसे गिरे की फिर कभी उठे ही नहीं। मोबाइल, पर्स सब घर पर ही रखकर आए थे। लाश की शिनाख्त करना भी मुश्किल हो गया था। आस-पास के लोगों ने पुलिस को फ़ोन किया। इंस्पेक्टर साहब ने जेब में पड़े नम्बरों पर फ़ोन किया फिर कहीं जाकर घर में पता चला। खबर मिलते ही घर में कोहराम मच गया। लाश लेने के लिए बड़े भाई और मित्रगण अस्पताल पहुंचे पर बिना पोस्टमार्टम किये डॉक्टरों ने लाश देने से मना कर दिया। अगले दिन पोस्टमार्टम हुआ ४५ वा नंबर था हरका का 'हमारे देश में तो मौत के बाद भी कतार में खड़े होकर अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता है, लोकतंत्र जो हुआ'

     चलो जैसे-तैसे हरका का पोस्टमार्टम हुआ। मौत की वज़ह ब्रेन हैमरेज 'दिमाग की नस फटना' बताई गई।  लाश परिजनों को सौंप दी गयी। गर्मी बहुत थी और मरे हुए हरका की हालत ख़राब। कुछ सयाने लोगों ने लाश को वही जला देने पर जोर दिया , लेकिन लाश की पत्नी की ज़िद्द के कारण लाश को उसके घर लाया जा रहा था। बड़े भाई ने फ़ोन पर बताया कि रात ११ बजे तक लाश लेकर पहुँच जाएंगे। लाश के साथ उसकी बड़ी भाबी, लाश की पत्नी और दो गांव के बिरादर आ रहे थे।

     घर में सगे-सम्बन्धियों, नाते-रिश्तेदारों, पास-पड़ोसियों का ताँता लग गया।  सब घर के हॉल में बैठे इंतज़ार कर रहे थे लाश का! तभी लाश के छोटे चचेरे भाई 'थापु' वैसे उनका नाम 'भोलाराम पाठक' था, लेकिन प्यार से वो थापु कहलाते थे। बोल पड़े,'जीवन भी क्या चीज़ है, आज हाथ में कल रेत की तरह हाथ से बाहर।' ये कहते हुए उन्होंने गीता सार की कुछ पंक्तियाँ पड़ी 'क्या लेकर आए थे क्या लेकर जाओगे' हरका को ही ले लो कल तक ही ज़िंदा था बेचारा।  फिर थापु ने लम्बी साँस भरी और दूसरे लोगों ने थापु की बात पर सहमति जता दी। हॉल में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया।

     एक सज्जन बोले यार! लाश से तो बड़ी दुर्गंध आ रही होगी , एक तो पोस्टमार्टम ऊपर से लखनऊ की गर्मी। लाश को वहीं जला आना था। इस बात पर कुछ ने सहमति में तथा कुछ ने असहमति में अपने सिर इधर-उधर कर दिए।
     हॉल में चर्चा का बाजार गर्म था, सब अपने- अपने जीवन के अनुभव एक-एक करके सुना रहे थे और दूसरे हामी भरकर उनका समर्थन कर रहे थे। 9 बज रहे थे, 9 का 10 बजा और 10 का 11 बज गया पर चर्चा में लोग इतने व्यस्त थे की लाश की किसी को होश की नहीं रही।  करीब पौने बारह बजे जब नींद बातों पर हावी होने लगी, तो किसी ने पूछा! जरा पता करो फ़ोन करके! कहाँ पहुंची है लाश। लाश के भतीजे ने फ़ोन करा तो पता चला के लाश अभी बरेली ही पहुंची थी, अरे! बरेली का रास्ता तो बड़ा ख़राब है, गाड़ी से तो बड़े गड्डे हैं, सड़क पर।  अभी तो आने में कम से कम पांच-छः घंटे लग ही जाएंगे कोई बीच में बोला। अब नींद सब पर हावी होने लगी। सबको नींद की चिंता होने लगी। सब सुबह लाश के पहुंचने पर फिर आने की बात कहकर अपनी लाश को आराम देने के लिए अपने घर को चल दिए। किसको दूसरों की लाश की पड़ी है जबकि सबके पास ढोने को अपनी-अपनी लाशें हुई। घर में कुछ आत्मीय बचे रह गए थे, वो भी घर का एक कोना पकड़ कर वहीं सो गए।  घर में एक बार फिर सन्नाटा छा गया। सब सो रहे थे एक ही जाग रहा था और चल रहा था और वो थी हरका की लाश!
फोटो साभार- wikimedia 
     सुबह ४ बजे तड़के हरका के भतीजे का फोन बज उठा लाश के शहर में पहुंचने की खबर लेकर। घर में सब जल्दी-जल्दी उठे, जा चुके लोगों को दोबारा बुलाया गया। आँख मसलते हुए लोग दोबारा घर पहुंचे। किसी ने सग्गड़ में आग सुल्गा दी, किसी ने लाश को रखने के लिए चादर बिछा दी। तैयारी ऐसे चल रही थी, जैसे किसी दूल्हे की देहली पूजन की रस्म हो। सब जल्दी-जल्दी अपना काम करने में व्यस्त थे कि तभी गाड़ी के हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी, एक गाड़ी आकर के रुकी काले शीशों वाली लाल रंग की वो गाड़ी ऐसे लग रही थी कि मानो मौत का चोगा अपने में समेटे हो। गाड़ी के पीछे का दरवाज़ा खुला, लाश की पत्नी रोती-बिलखती समाज को अनपे दुःख व संवेदना का परिचय देते हुए बहार निकली, फिर लाश के बिरादर फिर भाभी और बड़े भाई भी बहार निकले चहरे पर एक अजब से उदासी लिए। अंदर सिर्फ लाश थी, सफेद कपडे में खून के धब्बों के साथ लिपटी, हरका की लाश। लोग चुपचाप खड़े होकर लाश को देख रहे थे और लाश चुपचाप पड़े-पड़े लोगों को देख रही थी। अब कोई कुछ नहीं बोल रहा था क्यूंकि, ''लाशें कुछ नहीं बोलती" 


लेखक-तरुण पाठक 

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