उत्तराखण्ड का इतिहास
उत्तराखण्ड का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना रहा है। वेदों से लेकर उपनिषदों पुराणों, महाभारत व वाल्मीकी की रामायण में भी उत्तराखण्ड का उल्लेख होता रहा है। सभी देवी-देवताओं का वास यहाँ रहा है। उत्तराखण्ड के इतिहास सम्बन्धित जानकारी हम आपको आगे भी देते रहेंगे। इस कड़ी में आज हम बात कर रहे है कत्यूर घाटी व बैजनाथ मन्दिर के बारे में।कत्यूर घाटी -
कत्यूरी राजाओं ने अपनी राजधानी जोशीमठ से स्थानान्तरित करके अल्मोड़ा से 73 किमी0 दूर वर्तमान गरूड़ के आस-पास बसायी जो कत्यूर घाटी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इस घाटी की सरहदें पूर्व में सरयू, पश्चिम में बारामण्डल दक्षिण में दानपुर तथा उत्तर में गढ़वाल बातायी जाती है। इस घाटी में जगथाण का धुरा तथा गोपालकोट की पहाड़ियाँ हैं। नदियों में गोमती तथा गरूड़गंगा बहती हैं।यह घाटी तराई-भाबर की तरह समतल है जिससे यहाँ खेती आदि करने में सुविधा होती है। जिस वजह से यहाँ बसायत हुई होगी नदी घाटी होने के कारण यहाँ तराई-भाबर की तरह ही उमस का वातावरण रहता है। जिससे यहाँ मच्छरों से होने वाली बीमारी मलेरिया का प्रकोप रहता था। वर्तमान में स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार होने के कारण इस बीमारी में गिरावट आ गयी है पर खतरा लगातार बना रहता है।
कत्यूर राजाओं ने अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिए दो किलों का निर्माण किया। गोपालकोट तथा रणचुला। ऐसा माना जाता है कि गोपालकोट में कत्यूरी राजाओं का खजाना रहता था। बाद में कत्यूरी वंश का अवसान हो जाने के बाद चंद राजाओं के समय में इस किले में सेना की टुकड़ी रहने लगी। वर्तमान में गोपालकोट का किला पूरी तरह से नष्ट हो चुका है और अवशेष मात्र भी सुरक्षित नहीं है।
रणचुला किले के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह किला कत्यूर शहर के ऊपर है तथा यहाँ से शहर का नजारा खूबसूरत नजर आता है। पहले इस नगर का नाम कार्तिकेयपुर या कबीरपुर माना जाता है बाद मे अपभ्रंश के कारण ये कत्यूर हो गया। ऐसा भी माना जाता है इस घाटी में जहाँ लोग अब खेती करते हैं पहले यहाँ पर 4 से 5 मील की झील भी हुआ करती थी। जो बाद में टूट गयी या सूख गयी और कत्यूरी लोगों की बसायत हुई।
इस प्राचीन नगर के पूर्व की तरफ गोमती के किनारे बैजनाथ नामक एक शिव मंदिर भी है जो अपनी विशेष गौथिक शैली के लिए प्रसिद्ध है। इस मन्दिर के विषय में एक क्विदंती भी है कि इस मंदिर का वास्तुकार यह चाहता था कि इस मन्दिर से बागेश्वर के शिव मन्दिर बागनाथ का शिखर भी दिखाई दे परन्तु कत्यूरी राजा द्वारा ऐसा करने से मना कर दिया गया।
बैजनाथ मन्दिर -
कत्यूरी राजाओं के शासन की विशेषताओं में से एक उनका मन्दिर बनाना भी है। अपनी इसी विशेषता के चलते ही कत्यूरी राजाओं ने अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया। इन्हीं मन्दिरों से बैजनाथ या वैद्यनाथ का प्राचीन शिव मन्दिर भी है। जो अपने मन्दिर समूूहों तथा अनोखी गौथिक वास्तुकला के लिए प्रस्द्धि है।बैजनाथ मन्दिर का प्रमुख मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है तथा 17 अन्य छोटे मन्दिर अलग-अलग देवी देवताओं को समर्पित हैं। जिसमें कोटेश्वर देव, लक्ष्मीनारायण तथा ब्राह्मणी देवी के मन्दिर प्रमुख रूप से प्रसिद्ध हैं। मुख्य मन्दिर का शिला विन्यास पंचरथ है और आगे की तरफ एक मण्डप बना हुआ है। गौथिक शैली वास्तुकला की विशेषता उनके नाग शिखर होते हैं पर बैजनाथ के मुख्य मन्दिर का शिखर होते हैं पर बैजनाथ के मुख्य का शिखर पूर्व में मौसमी आपदा से नष्ट हो चुका है। वास्तुकला व कार्बन डेटिंग से इन मन्दिरों का निर्माण लगभग 9वीं से 12वीं शताब्दी तक के कत्यूरी राजाओं द्वारा किया गया प्राप्त हुआ है।
मूर्ति कला-
कुमाऊँ में प्राप्त 9वीं या उसके बाद की प्राप्त मूर्तियां जितनी अच्छी अवस्था में यहाँ प्राप्त होती हैं वो अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं होती हैं सिस्ट के पत्थर से बनी शिव, पार्वती व अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं। कुल मिलाकर यहाँ 26 से 30 मूर्तियों का होना कहा जाता है।मन्दिर परिसर में चोरों द्वारा कई मूर्तियों को चोरी कर देश के बाहर बेच दिया गया। कुछ मूर्तियों को भारत सरकार की मदद से यहाँ वापस लाया गया है तथा किमती मूर्तियों को सुरक्षा के लिहाज से आम आदमी की पहुँच से दूर रखा गया है। भविष्य में म्यूजियम बन जाने के बाद शायद आमजन के लिए खोल दिया जाए।
भीम पत्थर-
मन्दिर परिसर मे भीम पत्थर भी है। इसके विषय में ऐसी क्विदन्ती है कि इस शिला से महाभारत के पाण्डव भीम खेला करते थे। ऐसा माना जाता है कि 9 लोग अगर अपनी एक-एक ऊँगली से इसे ऊठाने की कोशिश करें तो यह आसानी से उठ जाता है, अन्यथा नही उठता।मन्दिर कुंड- मन्दिर के आगे एक विशाल जल कुंड है त्योहारों के समय भक्तगण इस मन्दिर कुंड में नहाकर अपने को पवित्र मानते हैं। यह कुंड हरिद्वार के ब्रह्मकुंड की तरह ही है। इस कुंड में कई तरह की मछलियां भी देखने को मिलती हैं।
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