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उत्तराखण्ड आंदोलन की पृष्ठ्भूमि
उत्तराखण्ड की मांग भी स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ चलती रही। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देश को आजाद कराने के अलावा उत्तराखण्ड का जनमानस ब्रिटिश साम्राज्य से उत्तराखण्ड की भौगोलिक विभिन्नताओं के कारण अलग राज्य बनाने का निरन्तर प्रयास कर रहे थे। यहां की भौगोलिक परिस्थितियां हमेशा से अलग रही हैं। इस बात को यहां के जनमानस ने बहुत पहले ही समझ लिया था। प्राचीन समय से ही यहां की जनता का सामाजिक व्यवहार, संस्कृति, खान-पान भाभर के लोगों से अलग रहा है। राजवंशो के राज्य में भी भाभर का बहुत ही कम क्षेत्र रहा है। कत्यूरी से गोरखा तक पहाड़ का शासन पहाड़ से ही संचालित होता रहा था। अंग्रेजों के आगमन के बाद पहाड़ को संयुक्त प्रांत के अन्तर्गत रख दिया गया उसके उपरान्त पहाड़ का शासन भाभर से संचालित हुआ, और शुरू हुआ पहाड़ की उपेक्षा का दोैर जिसने पहाड़ की जनता को अलग राज्य बनाने के लिए प्रेरित व उद्वेलित किया।
व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो आजादी से पूर्व व आजादी के कई दशकों बाद भी उत्तराखण्ड की जनता की घोर उपेक्षा हुई। उसका भरभूर शोषण ही नही हुआ बल्कि उसे सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, चारित्रिक एवं राजनीतिक स्वर पर भी बिल्कुल पंगु बनाया गया। भारत की आजादी के बाद अंग्रेज तो अपने देश लौट गये लेकिन पश्चिम की उस परम्परा को ऐसे शासकों के हवाले कर गए जिस व्यवस्था में एक बाड़े में बन्द हजारों भेड़ों को एक अश्वारोही ग्वाला मनचाही दिशा मे हांक ले जाता है। उत्तराखण्ड के लोगों को भी ठीक इसी तरह हांकने का प्रयास हुआ। अंग्रेजों के अत्याचारों घायल पर्वतीय लोगों को अपने देश की सत्ता से भी जब घावों का मरहम नहीं मिल पाया तो वे दर्द व टीस से छटपटा उठे।
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Naveen Samachar |
उत्तराखण्ड आन्दोलन मुख्य रूप से तीन चरणों में सम्पन्न हुआ। प्रथम चरण में स्वतंत्रता से पूर्व राज्य की मांग है। प्रारम्भ में जब उत्तराखण्ड अंग्रेजी हुकुमत के अधीन था। हालांकि इस समय देश की स्वतंत्रता प्रमुख लक्ष्य थी, परन्तु इसी के साथ उत्तराखण्ड का एक वर्ग अलग उत्तराखण्ड की मांग को भी स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ-साथ जारी रखा हुआ था।
1947 में देश की आजादी के बाद 1947 से 1979 उत्तराखण्ड क्रांति दल के निर्माण के समय तक द्वितीय चरण में उत्तराखण्ड आन्दोलन चला। इस चरण में उत्तराखण्ड आन्दोलन सरकारी उपेक्षा के कारण कुछ मंद सा पड़ गया। राजनीतिक पार्टियां अपने निजी स्वार्थों व हितों के लिये उत्तराखण्ड को अलग करने के पक्ष में नही थी। भाजपा ने तो अपने घोषणा पत्र में भी उत्तराखण्ड को समर्थन न देने व अपने सिद्धान्तों के विपरीत होने की बात तक कह दी थी। हालांकि विभिन्न बुद्धिजीवी, छोटे संगठन, पत्र-पत्रिकाऐं अपने स्तर पर उत्तराखण्ड आन्दोलन को जीवित रखे हुए थे तथा जन चेतना का कार्य कर रहे थे।
1979 में मंसूरी मे उत्तराखण्ड क्रांति दल की स्थापना के बाद उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का तीसरा चरण माना जाता है। उत्तराखण्ड क्रांति दल की स्थापना के बाद उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन मे एक नयी जान आ गयी। पार्टी के निर्माण के बाद चले जन आन्दोलन बड़े उग्र व उग्रत्तर होते चले गये तथा सन् 2000 में इन आन्दोलनों के चलते उत्तराखण्ड एक अलग राज्य के रूप में परिणित हो गया।
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